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ग्वालिनी भूली तन-धन-धाम / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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ग्वालिनी भूली तन-धन-धाम।
ड्डूली फिरत बावरी इत-उत निरखत मोहन-छबि अभिराम॥
डोलत सर-सरिता-तट, कानन-कुंज सदा एकाकिनि बाम।
जहँ दृग जाय तहाँ नित दीखत सोहन प्रियतम-बदन ललाम॥
एक दिना भटकत इकंत बन, दृष्टि गई नभ दिसि सुठि ठाम।
अपलक नैन मुग्ध भइ ठाढ़ी निरखत छबि मन-मोहन स्याम॥
देस काल सब भये कृष्णमय, छये कृष्णघन तव तमाम।
धन्य ग्वालिनी जाके दृग-पंकज बन मधुप बसे घन-स्याम॥