घना बगीचा / दिनेश कुमार शुक्ल
सड़क से उतरते ही बाएँ
ठक्क से शुरू होता है
बैलगाड़ी की गहरी लीक वाला रास्ता
जिस पर शायर सिंह सपूत सभी चलते हैं
अगर उधर उस तरफ उतरते
तो सीधे खलवा में उतरते जाते
और शुरू हो जाता घना बगीचा
जैसे लठैत घेरते चले आ रहे हों
अकेले राहगीर को
साफ-साफ लगता कि बेल, बेर, कैथा
और ख़ासकर चिलबिल के पेड़
गोलबन्द होकर घेर रहे हैं
(बादल कभी क्या धिरेंगे इस तरह!)
बगीचे में एक कुरैल भी था
जिसमें समय ने और आँधियों ने
न जाने क्या-क्या ला गिराया था-
आवाजाही लगी रहती थी हवा-बइहर की,
देखने वाले बताते थे
कि कैसे नाच होता था छमाछम उजेरिया में
और दुपहर में अतर की गन्ध आती थी
सड़क के उस पार
बैलगाड़ियों और गड़गड्डों की धूल उड़ी
(गावत धूरि उड़ावत आवत) तो इस पार
बैलों के गले की घंटियाँ बजतीं बगीचे में,
सवारियाँ पर्दाबन्द बहलों में हँसती उधर
तो खनकने लगता पूरा का पूरा बगीचा इधर,
कोई चूँघट उठता बैलगाड़ी में
तो आँखें ही आँखें भर जातीं बगीचे में
आँखों-सी तितलियों का हुजूम!
कोई अधेड़ माँ गाती जाती सोहर लीक-लीक
तो गूलर और बरगद के फलों में भरने लगता
जीवन-रस
जिसकी लस में
चिपक कर रह जाते
कितने ही कीट-पतंग
बैलगाड़ी की लीक जाती जिस गाँव को
उसकी मुसम्मात की मिल्कियत में
पड़ता था यह घना-बगीचा,
बाग की हद के आगे खाई के पार
जो पुरवा था दो छप्परों का
उसमें रहते थे मनबोधन
काम करते मुसम्मात की काश्त में,
सच तो यह है कि सौ साल हुए
पर मनबोधन अभी जीवित हैं
और वास करते हैं
बगीचे के घने ऊँचे पेड़ों की फुनगियों पर,
फुनगियों पर रहते हैं
और रोते हैं मनबोधन और चन्द्रमा पर फेंकते हैं
चीत्कार और सन्नाटे के बड़े-बड़े पहाड़
मनबोधन का जवान बेटा और मुसम्मात
(जिनके नाम लेने का निखेध है)
अचानक एक सुबह साथ-साथ
फसरी लगाये बरगद से झूलते पाए गये
ध्यान से देखो
तो आज भी बेरी बबूल के झुरमुट के पास
एक अनन्त गुफा है जिसमें झूल रहे हैं प्रकृति और पुरुष
और बया पक्षियों के हजारों घोसले झूल रहे हैं
अरे हाँ!
नाम लेने का निखेध यों है कि
उन दोनों का नाम लेते ही गाँव के किसी न किसी घर में
आग जरूर लग जाती है।