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घर खड़े हैं सिर झुकाये / कुमार रवींद्र
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बंद कमरे
थके परदे
धूप लेटी मुँह छिपाये
इस शहर में कौन आये
खड़े रोशनदान बूढ़े
पीठ पर लादे अँधेरे
मंजिलों-दर-मंजिलों हैं
धुएँ के गुमनाम डेरे
दिन वहीं
बैठा अकेला
मेज पर कुहनी टिकाये
इस शहर में कौन आये
खो गये हैं रास्ते सब
भीड़ सडकों पर बड़ी है
दर्द के ओढ़े दुशाले
नई मुस्कानें खड़ीं हैं
गुंबजों की
आड़ लेकर
घर खड़े हैं सिर झुकाये
इस शहर में कौन आये