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घिरे कंटकों में सुमन पर खिलेंगे / रंजना वर्मा

घिरे कंटकों से सुमन पर खिलेंगें
बुझे दीप हैं जो कभी तो जलेंगें

करो गर्व पर तुम न अभिमान करना
गड़े नींव पत्थर कभी तो हिलेंगें

हृदय का घरौंदा कभी हो न छोटा
इसी में उड़ानों के' सपने पलेंगें

अगम थीं कभी विंध्य की श्रृंखलाएं
अचल बर्फ़ के ढेर भी तो गलेंगें

न यों स्वप्न की वीथियों में भटकना
फ़क़त ख़्वाब हैं ये तुम्हें भी छलेंगें

किये कर्म जिन व्यक्तियों ने सदा शुभ
भला किसलिये हाथ अपने मलेंगें

सदा प्रेम वर्षा किया हैं जो करते
नहीं वो किसी को कभी भी खलेंगें