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चमक चौदस की भीड़ में / लीलाधर मंडलोई
Kavita Kosh से
सोचा कहाँ होगा तुमने कि अधखिला सच
दबाए काँख में उड़ जाएगा एक बाज राजधानी की सिम्त
अब चमक-चौदस की भीड़ में डूबा
चमकता चाँदी का जूता है दिखता सिक्के सा
दाखिल होओ तो अपने निविड़ सुनसान में
संशय और अपयश में चिढ़ाएगा रह-रहकर अपना ही अक्स
दिखने को अपनी यातना में अडिग
गुनगुना सकते हो तो बेशक गुनगुनाओं अधखिला सच
खुदा करे आमद हो तुम्हारे यश की
तुम्हारा एकांत रोशन हो अधखिले झूठ में।