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चलती फिरती किताब से कम है / सिया सचदेव
Kavita Kosh से
चलती फिरती किताब से कम है
वो मिरे इंतेख़ाब से कम है
डूब जाएगी अब मेरी कश्ती
इसमें पानी भी दाब से कम है
दिल की हसरत को आसरा न मिला
ये हक़ीक़त तो ख़्वाब से कम है
तुम न पढ़ पाओगे कभी मुझको
मेरा चेहरा किताब से कम है
हक़ की ख़ातिर उठाई जो आवाज़
वो किसी इंकलाब से कम है
चाहे जो कुछ हो हैसियत मेरी
हाँ मगर कुछ जनाब से कम है
मेरे सर पर मुसीबते इतनी
जिंदगी क्या अज़ाब से कम है
नोके नेज़ा भी मेरे सीने में
तेरे कडवे जवाब से कम है
ज़ख्म जो भी मिला मुझे तुझसे
वो अभी तक गुलाब कम से है