चले जा रहे होगे तुम / सुमित्रा कुमारी सिन्हा
चले जा रहे होगे तुम,
ओ दूर देश के वासी।
चली रात भी, चले मेघ भी,
चलने के अभ्यासी।
भरा असाढ़,घटाएँ काली
नभ में लटकी होंगी;
चले जा रहे होगे तुम
कुछ स्मृतियाँ अटकी होंगी।
छोड़ उसाँस बैठ गाड़ी में
दूर निहारा होगा,
जबकि किसी अनजान
दिशा ने तुम्हें पुकारा होगा,
हहराती गाड़ी के डिब्बे
में बिजली के नीचे,
खोल पृष्ठ पोथी के
तुमने होंगे निज दृग मींचे।
सर सर सर पुरवैया
लहकी होगी सुधि मंडराई,
तभी बादलों ने छींटे
दे होगी तपन बढ़ाई।
खिड़की में मुँह डाल
सोचते होगे तुम यों उन्मन
कितनी तृष्णा से पूरित है
मानव का नन्हा मन।í
गाड़ी के हलके हिलकोरों
से तन डूबा होगा।
भरी भीड़ में एकाकीपन
से मन ऊबा होगा।
धमक उठे होंगे सहसा
मेघों के डमरू काले।
विकल मरोर उठे होंगे
तब घने भाव मतवाले।
दामिनि झमक उठी होगी
अम्बर की श्याम-अटा पर;
युगल नयन भी नीरव बरसे
होंगे उसी घटा भर।
रैन बसेरा पल भर का फिर
चल ही दिए, बटोही !
भोली कलियों को काँटों की
ओट किए, निर्मोही !
चलो, न रोकूँ; साथ तुम्हारे
विकल-भावना मेरी।
चलो, न टोकूँ; साथ तुम्हारे
विजय-कामना मेरी ।
चलते रहो सचेत बटोही,
कभी मिलेगी मंजिल ।
मिल लेंगे हम ज्यों झोंके,
से लहराती मलयानिल ।
बदले जीवन-चक्र दिशा गति
मुक्त मार्ग-अनुगामी।
किंतु खिलाये रखना तब तक
सपने कुछ आगामी ।
मधुर नेह रस के सागर
से रीत न जावें आँखें,
घिर न रहें पथ की
सीमाओं में आशा की पाँखें।
चले जा रहे होगे तुम,
ओ दूर देश के वासी ।
चली रात भी,चले मेघ भी,
चलने के अभ्यासी ।