चवन्नी का लोकतंत्र / अरविन्द श्रीवास्तव
यह क्रूर समय की बेचारगी थी
सम्बन्ध फाहे थे और रिश्ता
एक निविदा !
यूज़ एण्ड थ्रो आचरण की एक शिष्ट-शैली, जो
परिपाटी बन चुकी थी
अब चूँकि चवन्नी अपनी औकात और स्टेटस में
सबसे निचले पायदान पर
बुढ़िया याचक-सी बैठी थी
अतः सामर्थ्यवानों ने ग्लोबल-साइनिंग के लिए
उसे वित्त-व्यवस्था और सुसंस्कृत कही जाने वाली
इस सभ्यता से खदेड़ दिया था ।
इस लोकतांत्रिक हत्या पर लोगों की सहमति थी
और कहें तो जश्न-सा माहौल भी
जिसे बड़े ध्यान से देख रही थी सिर्फ़ और सिर्फ़
कमज़ोर व बीमार अट्ठनी ।
तमाम किस्म के कथित विलापों से
इतना तो स्पष्ट था कि अब नहीं होगा पुनर्जन्म
नहीं दिखेगी किसी रंग-रूप में चवन्नी !
दिखेगा भी तो
म्यूजियम के किसी कोने में चवन्नी की मृत-शरीर !
उन्होंने अपनी हैसियत में इजाफ़ा कर लिया है
जो कभी चवनिया मुस्कान बिखेरने के लिए
बदनाम थे
बदल डाले गए चूरन और लेमनचूस के रैपर
अब राजा क़िस्म के लोग
दिल नहीं माँगते थे चवन्नी उछाल कर
चवन्नी का खेल त्म हो चुका है
हत्या हो चुकी है उसकी
जैसे हमारे लोकतंत्र में
सपने, उम्मीद और हौसले की हत्या होती है
यह वही चवन्नी थी जो चुटकी में सलटा देती थी
पान, बीड़ी और खैनी की तलब
घोरनदास का बेटा दिनभर मटरगश्ती करता था
चवन्नी लेकर रामोतार का पोता खिलखिला कर हँस देता
लाल आइसक्रीम उसकी आँखों में तैर जाती
गर दादी जीवित होती तो चवन्नी के हत्यारे पर ख़ूब बरसती
बिल्कुल छम्मक-छल्लो बनकर आई थी कभी चवन्नी
चवन्नी-चैप लोगों ने भी अरसा लुत्फ उठाया था इसका
सिनेमा के थर्ड-क्लासी दर्शकों से साहूकारों तक दबोचा था इसे
गुल्लक की चहेती थी कभी चवन्नी
तंगहाली मे जी रही थी इधर पीलिया-पीड़ित चवन्नी
लोग इसे छूने को तैयार नहीं थे
बनिया नहीं पूछ रहा था इसकी ख़ैरियत
बच्चे कतराने लगे थे इसे देखकर
वित्त-मंत्रालय की भृकुटि तनी थी
आर०बी०आई० की आँखों की किरकिरी या फिर
चवन्नी ढालनेवाली टकसालों ने हाथ खड़े कर दिए थे
चवन्नी के नाम पर
माहौल प्रतिकूल था ।
चली गई चवन्नी इस लोकतंत्र से
कई-कई भाषा, लिपि और जातियों-सी
पेड़-पौधे, पहाड़ व तितली-सी
सभ्यता और संस्कृति-सी
लुप्त हो गई लोकतंत्र से चवन्नी
सरस्वती बन हमारी रगों में बहने के लिए !