चाँद, पानी और सीता / अरुण देव
स्त्रियाँ अर्घ्य दे रही हैं चन्द्रमा को
पृथ्वी ने चन्द्रमा को स्त्रियों के हाथों जल भेजा है
कि नर्म मुलायम रहे उसकी मिट्टी
कि उसके अमावस में भी पूर्णिमा का अंकुरण होता रहे
लोटे से धीरे-धीरे गिरते जल से होकर आ रहीं हैं चन्द्रमा की किरणें
जल छू रहा है उजाले को
उजाला जल से बाहर आकर कुछ और ही हो गया है
बीज भी तो धरती से खिलकर कुछ और हो जाता है
घुटनों तक जल में डूबी स्त्रियों को
धान रोपते हुए, भविष्य उगाते हुए सूर्य देखता है
देखता है चन्द्रमा
स्त्रियाँ सूरज को भी देती हैं जल, जल में बैठ कर
कि हर रात के बात वह लौटे अपने प्रकाश के साथ
धरती पर पौधे को पहला जल किसी स्त्री ने ही दिया होगा
तभी तो अभी भी हरी-भरी है पृथ्वी
स्त्रियाँ पृथ्वी हैं
रत्न की तरह नहीं निकली वें
न ही थी किसी मटके में जनक के लिए
अगर और लज्जित करोगे
लौट जाएँगी अपने घर
हे राम !
क्या करोगे तब…