चाँद और रोटियाँ / मृदुला शुक्ला
पिछली पूरनमासी पर जब तुम्हारा पोर पोर
डूबा हुआ था चाँद से टपकते शहद मैं
तो मैं अपनी कविता में बो रही थी रोटियाँ
खेतों मैं गेंहू बोने सा
बालियों में रस पड़ने सा
या खेतों में पक कर सुनहरी धूप के फैलने सा
क्यूंकि चादं से टपकता शहद एक चीख बन कर मेरे
कानो में घुला था
भूखों !यूँ मत देखो मुझे मैं रोटी नहीं हूँ
जबकि मैं जानती हूँ की कवितायें नहीं भरती पेट
कविता लिखने वालों का भी
जब तुम गा रहे थे झील बादल ओस !
तो मैं भटक रही होती हूँ तीजन के साथ
सर पर पानी का मटका लिए
पत्थरों के जंगल मैं
तुम्हारे ख्यालों की झील से से १० कोस दूर
क्यूँकि मैं ये भी जानती हूँ की ओस चाटने से प्यास नहीं बुझती
तुम चलो ना!
रास्ते के दायीं तरफ और
मैं चलती हूँ बायीं तरफ
फिर भी हम होंगे साथ साथ
सामानांतर और
शायद अलग अलग भी