वह शरद की
धुली, उजली चांदनी
आकाश से
सीढ़ी उतरकर
कभी आती थी हमारे घर
बिछलती द्वार, आंगन में
सेहन में और कमरे में उझककर
झांकती थी
फिर इशारे से
हमें बाहर बुलाकर
पूछती थी नाम
फिर अठखेलियां करती
भिगोती थी
हमारा तन
परसती थी
हमारा मन
खुले वातास
बिखराती हुई
मकरंद
कोई गंध
जिसको अंजुरियों में भर नहाते थे
शरद की ओस में हम!
किन्तु अब
वह चांदनी
वह घर
हमारा मन
सभी कुछ
बहुत पीछे...बहुत पीछे
रह गया है
किसी बर्फीली नदी की
भुरभुराती रेत जैसा
बह गया है!
चांदनी धुंधला गई है
सिर्फ कुछ किरचें हवा में
थरथराकर
मौन हो जातीं
अचानक पंक में
फिर डूब जाती हैं
हमारे घर
हमारे मन
सभी से ऊब जाती हैं
और यह मन भी हमारा
कहीं कुछ मैला
दिखाई दे रहा है
चांदनी को!
चांदनी से अब
हमारे सभी रिश्ते
चुक गये हैं
चांदनी पर
मेघ काले
झुक गये हैं
और मन के
सांवले आकाश पर
तिरती हुई-सी
कल्पना के
हिरन-छौने
हार-थककर
रुक गये हैं
चांदनी भी
अब नहीं छूती
हमारा मन
स्वयं हम भी
कभी करते नहीं
अब
चांदनी का
मौन आराधन
न आवाहन!
-शरद पूर्णिमा-14 अक्तूबर, 1989