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चान अझुराएत / रामकृष्ण

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बहुत दिन से सोच रहली हल
कहेला-बात
अप्पनआ तोर जिनगी के।
एगो लतिआएल, निचोरल
फूल अइसन
फेंक मत द्वऽ
मोह के माला उतारल
कँहर भरले आँख के अहरा
अकेलुआ
लहर के जखनी
हकासल छोह छलके,
ढार द तातल, निगोड़ा लोर
अप्पन, निहुर जैतो
मान के पैना उसाहल।
सोंच सकलऽ हे कभी
काहे करऽ हे-रातभर
हे इँजोरिआ के महक
अनमोल तो
गुदगुदी के सहक जइसन
ऊ अघाएल।
भीड़ के धक्का सहे से बेस हे
भाव के खुसकी किआरी पर
मचलना,
मालती के रूप देखत
राह में, के नऽ मातल
महक मोहक कसमसाएल।
रीत के लच्छन न होवे
प्रीत ला/भूखलागी
छूछ कइसन, पूछ कइसन?
गूँग के भाखा सबद ला
का पड़ल हौ?
बात मन के साँस से
जाहे पसारल
लऽ हमर सब राग
आउर पराग ले लऽ
अकचका के जिन्नगी के
भाग लेलऽ
साँझ मत समझऽ
उगल भिुनसार समझऽ
तोर तप के चाननी ला
चान अझुराएत।