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चाबुक की मार हुई ज़िंदगी / पद्माकर शर्मा 'मैथिल'

चाबुक की मार हुई ज़िंदगी।
आँधी रफ़्तार हुई ज़िंदगी॥

लाल लाल आँखें तरेरे हैं।
कितनी ख़ूँख़ार हुई ज़िंदगी॥

देख कर ही काँप-काँप जाता हूँ।
ओछे का प्यार हुई ज़िंदगी॥

आकर भी बिन आए चली गई।
गुज़रा इतवार हुई ज़िंदगी॥

मौत ही शायद हो इलाज इसका।
कितनी बीमार हुई ज़िंदगी॥

पढ़ लिया समझ लिया फेंक दिया।
बासी अख़बार हुई ज़िंदगी॥

हम ने तो शबनम के ख़्वाब बुने,
गर्म कोलतार हुई ज़िंदगी॥