चारिम खण्ड / भाग 1 / बैजू मिश्र 'देहाती'
राम सिया लक्ष्मण अबितहिं,
चित्रकूट छल बनल ललाम।
भरि दिन ऋषी मुनी केर संगम,
भीलहुँ कोलक बनल सुधाम।
ऋषी मुनी केर धर्मक चर्चा,
सतसंगक छल बिषय प्रधान।
कोल भील फल फूल जुटाबए,
बूझि धर्म सेवाक महान्।
पशु पक्षी निर्भय भए बिचरए,
राम शुभागम केर प्रताप।
हिंसक जन्तु छोड़ि देने छल,
दोसरकें दुख देबक ताप।
पावन मन्दाकिनि जल परसथि,
चित्रकुट केर चारू कात।
मज्जन पान करथि ऋषि मुनि गण,
बिहरथि प्रमुदित कयने गात।
फलक बृक्ष द्विगुणित फल नेने,
ठाढ़ छला सब सेवा हेतु।
आएल छथि पाहुन घर हमरा,
अखिल विश्व पति रघुकुल केतु।
ततए बिता किछु दिन सुख पूर्वक,
आन विपिन चलला श्रीराम।
जतए छला वर ऋषी मुनी गण,
संग सिया लक्ष्मण तेहिधाम।
बाटहिमे भेटल विराध छल,
राक्षस, धयने रूप प्रचंड।
वाण चला तत्क्षण कय देलनि,
नर भक्षीकें खंड पखंड।
सुनितहि मरण विराधक ऋषि मुनि,
अएला राम समीप तजि त्रास।
विगत कुकृत्य दनुज केर कहलनि,
जेहि विधि कयल ऋषी कुल ग्रास।
अस्थि समूह देखि मुनि वंशक,
रघुपति भुजा उठा व्रत लेल।
करब विनास असुर वंशक हम,
सुमनस वृष्टि तहँ नभ सऽ भेल।
अएला पुनि मुनि अत्रिक आश्रम,
राम, लक्ष्मण, सिया समेत।
अनुसूया पत्नी सह ऋषिवर,
छाला तपस्यामे समवेत।
देखि शुभागम रामक मुनिवर,
अति प्रसन्न मन कए सत्कार।
बैसाओल फल मूल खोआओल,
प्रकट कएल उरसँ आभार।
ओम्हर सियाकें अनुसूयाजी,
देल पतिव्रत केर उपदेश।
जे नारी निर्वहती एकरा,
तनिका हएत नइि कुशक कलेश।
किछु दिन बिता ततए सऽ रघुवर,
अएला मुनि अगस्त्य केर धाम।
हुनक सुसम्मति केर अनुसारे,
पंचवटी छल अधि सुठाम।
गोदावरि तट आबि अवधपति,
पर्ण कुटी कयलनि निर्माण।
जानि निवास राम केर ऋषि मुनि,
दनुज त्रास सऽ पओलनि त्राण।
नित सत् संगक हो अयोजन,
धर्म अधर्मक विषय बिचार।
पंचवटी आनन्द मग्न छल,
बहइत चहुदिश सुखद वयार।
सूर्पनखा रावण केर भगिनी,
आयल एकदिन रामक पास।
माया कए छल रूप बनौने,
मनमे रखने प्रणय पिपास।
राम कहल कैने विवाह छी,
लक्ष्मणकें जा दिऔन विचार।
अहाँक रूप लखि बहु भरोस अछि,
कए लेता निश्चय स्वीकार।
मुदा लखन नहि स्वीकृति देलनि,
कहलनि राम थिका सम्राट।
करथि विवाह जतेक ओ चाहथि,
हुनक परिधि छनि बहुत विराट।
पुनि पुनि कहलनि राम लखनकें,
मुदा ने बनलनि कतहु बात।
नाक कान कटबा तहँ अएली,
जहँ छलथिन षड़दूषन भ्रात।
देखि दुर्दशा बहिनक रूपक,
षड़दूषण भए अतिसैं क्रुद्ध ।
अस्त्र शस्त्र बहु सैन्य संगलए,
आयल करए रामसँ युद्ध।
गर्जन करए गगनमे छड़पए,
माया बल बनबए बहुरूप।
मुदा राम केर वाणक कौशल,
बरनतके छल ततेक अनूप।
एक वाण शतशत भए दौगए,
काटए दनुजक पग कर शीस।
जलथल नभ इन्द्रादि देवगण,
देखल तखनुक रामक रीस।
लागए जेना प्रलय कए देता,
तेहन बनल छल रूप कराल।
रक्तिम नयन भुजामे धनुशर,
दीप्त दिवाकर दमकैत भाल।
माया सेहो राम किछु कएलनि,
अपन रूप रिपु सनक बनाए।
भ्रमक जालमे सभ लेपटायल,
अपनेमे दए देल लड़ाए।
बूझए एक राम छथि दोसर,
सभपर सभ क्यो करए प्रहार।
थोड़बे कालक विकट युद्धमे,
राम कयल सबहक संहार।
देखल सैन्य गेल सभ मारल,
षड़दूषण त्रिशिरादिक संग।
आयल रणक्षेत्रमे गरजल,
देखबय लागल दनुजक रंग।
देखिराम छल क्षण शत्रु केर,
मरल कठिन वाण संधानि।
खंड-खंड सभकें कए देलनि,
स्वर्ग सिधारल जग सऽ कानि।
बहु प्रसन्न नभसँ बरिसाओल,
सकल देवगण हर्ष समेत।
दनुज वंश केर निश्चय करता,
नास तकर छल दृढ़ संकेत।