भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चार दिन की चाँदनी / रेशमा हिंगोरानी
Kavita Kosh से
कोई मुद्दत के बाद
दिल के तार
छेड़ गया!
फिर वही नग़मे फ़ज़ा<ref>वातावरण</ref> में हैं,
गुनगुनाने लगे,
मैं उड़ रही,
ज़मीन-ओ-आसमाँ के बीच कहीं,
थिरक रहे हैं पाँव,
बोलने लगे घुँघरू!
न कोई फ़िक्र,
और न कोई ग़म की परछाईं,
एक मस्ती का है आलम<ref>हालत</ref>,
और इक ख़याल तेरा!
अब कोई ख़ौफ नहीं,
चाँदनी अगर मेरी,
है चार दिन की,
तो आ जाए रात अँधियारी...
मैं हूँ वाक़िफ
सियाह<ref>अँधेरी / काली</ref> रात की
हकीक़त से,
उम्र उसकी तो,
चार दिन भी नहीं होती है!
(चार दिन की चाँदनी से मक्सद है कोई भी चीज़ जो बहुत कम देर रहे)
29.08.96
शब्दार्थ
<references/>