भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चालाकी / अरविन्द श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
कंपकपाती ठंढ में आग की बोरसी
दहकती गर्मी में
ताड़ के पंखे
और अंधेरे में लालटेन हैं मेरे पास
लाता हूँ रोज़-रोज़ चोकर-खुद्दी
खिलाता हूँ साग-पात
धर में बकरियों-सी बेटियों को
गाय-सी पत्नी
और घोड़े-से बेटे को
और क्या कर सकता है चालाकी
एक अस्तबल का
फटीचर साईस!