चिट्ठियाँ / शिवजी श्रीवास्तव
अब नहीं आता गली में डाकिया
अब नहीं आतीं कहीं से
गंध भीगी
नेह के रस में पगीं
वैसी गुलाबी चिट्ठियाँ
चिट्ठियाँ ऐसी कि जिनको खोलते ही
जुगनुओं जैसे चमकते शब्द
उड़कर नाचते थे
और उनकी टिमटिमाती रोशनी में
बैठकर हम
भाग्य अपना बाँचते थे।
शब्द थे या कवि हृदय के
सहज छंद प्रबंध थे
हर जनम में साथ रहने के
प्रबल अनुबंध थे
उन्हीं अनुबंधों को हर पल
ओढ़ते थे
और बिछाते थे
बैठ कर उनकी सुनहरी छाँव में
रेत के कितने घरौंदे
हम बनाते थे,
अब नहीं बनते घरौंदे
रेत के
अब न कोई बीनता है
शंख, कौड़ी, सीपियाँ।
और भी रंगों कीआती थीं
गली में चिट्ठियाँ
बोलने लगते थे आँगन
जागती थीं खिड़कियाँ।
आ गई चिट्ठी बहू के मायके से
पिता के उपदेश
अम्मा की असीसें
विदा को कल आ रहे हैं
मझले भइया
दो दिनों के बाद हैं
सावन की तीजें
टपकता है फिर
नया छप्पर छ्वाना है
तेरे भैया को नए कपड़े
सिलाना है ,
अभी तीरथ को गए है
दादा दादी
हो गई पक्की
तेरी बहिना की शादी।
ऐसे ही न जाने कितने
रंग होते थे
कुछ ग़मों के कुछ ख़ुशी के
संग होते थे,
चिट्ठियों में गाँव घर
चौपाल होते थे।
चिट्ठियों में जगत भर के
हाल होते थे।
चिट्ठियाँ तपती जमीं में
सर्द झोंका थीं
सारी दुनिया साफ दिखती
वो झरोखा थीं
नेट पर दिन रात बैठी
चैट करती पीढ़ियाँ
व्हाट्सएप पर
क्षणों में संदेश करती पीढ़ियाँ
क्या समझ पाएँगी,
छुप के
चिट्ठी पढ़ने का मज़ा
पढ़ते पढ़ते रोते जाना
रो के हँसने का मजा
क्या बताएँ हम उन्हें ऐ दोस्तो !
क्यों सहेजे हम रखे हैं
अब तलक
पीले पड़ते कागजों की
कुछ पुरानी चिट्ठियाँ।