चिरायँध की दिशा / शलभ श्रीराम सिंह
रातों को कभी कभी जागता है श्मशान !
श्मशान : चिटकता-चिरायँध से भरा-धुँधुआता !
कुत्ते फोड़ते हैं हड्डियाँ !
सियार तोड़ते हैं खोपड़ियाँ !
ढेर सारी आँखें
छिटक कर
यहाँ-वहाँ हो जाती हैं !
पसर जाती हैं अधपकी अतड़ियाँ !
छिड़ता है सियार और कुत्तों में युद्ध
हवा
समय से फायदा उठाकर
मुट्ठियों में
सड़ाँध भर कर भागती है !
बस्तियों तक पहुँचती है सन्नाटे की टूटन !
विधवायें सोचती हैं चक्की पीसने की बात
सुहागिनों को याद आता है चौकी-बासन !
कुमारियों के इर्द-गिर्द
कहकहा उछालते हैं सपनों के राजकुँवर !
बड़े-बूढ़ों को चाहिए
हुक्का-चिलम-आग !
खेतपर जाते बैलों की घण्टियाँ बजती हैं !
सुबह का होना निश्चित जानकर
कटोरों में दुबके गिद्ध
अनुमानते हैं चिरायँध कि दिशा !
रातों को कभी-कभी जागता है श्मशान !
(1964)