चुनावी मौसम की बरसातों में / वंदना गुप्ता
सुना है एक बार फिर
चुनाव का मौसम लहलहा रहा है
निकल पड़े हैं सब दल बल सहित
अपने अपने हथियारों के साथ
शब्दबाणों का करके भयंकर वार
करना चाहते हैं पूरी सेना को धराशायी
भूलकर इस सत्य को
चुनाव है भाई
यहाँ साम दाम दंड भेद की नीतियां अपनाकर ही
जीती जा सकती है लड़ाई
जी हाँ
न केवल तोड़े जायेंगे दूसरे दलों के शीर्ष नेता
बल्कि जरूरी है आज के समय में
मीडिया पर भी शिकंजा
जिसकी जितनी चादर होगी
उतने पाँव पसारेगा
मगर जिसका होगा शासन
वो ही कमान संभालेगा
करेगा मनमाने जोड़ तोड़
विरोधियों को करने को ख़ारिज
जरूरी है आज
अपनी जय जयकार स्वयं करनी
और सबसे करवानी
बस यही है सुशासन
यही है अच्छे दिन की चाशनी
जिसमे जनता को एक बार फिर ठगने का मौका हाथ लगा है
फिर क्या फर्क पड़ता है
बात पांच साल की है
भूल जाती है जनता
याद रहता है उसे सिर्फ
अंतिम समय किया काम
चुनावी मौसम की बरसातों में भीगने को
कुछ ख़ास मुखौटों की जरूरत होती है
जो बदले जा सकें हर घात प्रतिघात पर
जहाँ बदला जा सके ईमान भी बेईमान भी
और चल जाए खोटा सिक्का भी टंच सोने के भाव
बस यही है अंतिम मौका
करो शब्दों से प्रहार
करो भीतरघात
येन केन प्रकारेण जरूरी है आज
बस चुनाव जीतनाऔर कुर्सी हथियाना
भरोसा शब्द टूटने के लिए ही बना है सभी जानते हैं हा हा हा