भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चेत नि आई / ओम बधानी
Kavita Kosh से
जाळि आंख्यौं क सारा,झुठ्ठा सौं क भरांेसा
पंथ माया क हिटी, धारू गाडु रिटि-रिटि
घुण्डी मुण्डी थिच्यै ग्याई, तौभि चेत नि आई।
सुन्नि मुन्नि जिदेरू न पर्वाण खोंदेरू न
ओडा धरिन जिकुड़्यौं म सरै सौण मुखड़्यौं म
सदानि आंसु हि पाई, तौभि चेत नि आई।
रात सुपन्यौं म जग्वाळ,दिन आंख्यौं कु जिबाळ
ज्वानि चलिगे बुडापु ऐ,लटुलि पकिगे आस नि गै
आंख्यौं जोत नि राई,तौभि चेत नि आई।
कंदुड़ आगळ लगाई,अकल सांकळ चड़ाई
मायाक स्ंयूस्याट म, रूप क गगड़्ाट म
रड़्यौं अर रड़दु हि राई,तौ भि चेत नि आई।