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चेहरा कहाँ गुम हो गया / निश्तर ख़ानक़ाही
Kavita Kosh से
आँधियों में कुछ तो ढूँढ़ों, क्या यहाँ गुम हो गया
यह जमीं गुम हो गई या आसमाँ गुम हो गया
जिसकी पेशानी पे लिखा था, किराए का लिए
अजनबी सड़कों पे वो ख़ाली मकाँ गुम हो गया
भीगे कपड़ों को निचोड़ा था यह किसके हाथ ने
सिलवटों की भीड़ में चेहरा कहाँ गुम हो गया
रंग जितने थे, वो सब ख़ुशबू की सूरत उड़ गए
बंद मुट्ठी क्या खुली, सारा जहाँ गुम हो गया
अब तो दरियाओं में भी चलते हैं झक्कड़ गर्द के
याद बाक़ी रह गई आबे-रवाँ गुम हो गया
शहर से जब शहर मिलता है बिछुड़ जाते हैं लोग
तुम वहाँ खोए गए हो, मैं यहाँ गुम हो गया
आने वाले लोग अब पानी पे घर बनवाएँगे
अबके तूफाँ में तो ख़तरें का निशाँ गुम गो गया