चौथॅ सर्ग: सीता / गुमसैलॅ धरती / सुरेन्द्र 'परिमल'
समाचार सुनथैं सुख-सपना छन में चकनाचूर भेलै।
पर्दा उठलै, सजलॅ जीवन आँखीं सें मानॅ दूर भेलै।
लहरै छेलै उल्लास मनॅ केॅ मुहुर-मुहुर झकझोरी केॅ।
अनचोके बज्राघात भेलै जेना सब बान्हन तोड़ी केॅ।
हरियैलॅ खेतॅ पर आला-पक्खल के बर्षापात भेलै।
दीया लगलै फुललॅ लत्ती जड़िये सें हाय! निपात भेलै।
देवर होतै राजा, आरो मिलतै वनबास चितेरा केॅ।
सुख-दुख दोनों एक्के साथें चललॅ छै नगरी फेरा पेॅ।
लेकिन, सुख के साधन की केवल सत्ता-संग्रह मान छेकै?
या, त्याग-तपस्या के बेदी पर सबकुछ के बलिदान छेकै?
छै पिता महाराजा लेकिन जोगी रं ध्यान लगाबै छै।
बनबासी-मुनी-तपस्वी भी, हुनका लग आबी पाबै छै।
मन सें भरमै छै जंगल में, तन भलें रहेॅ सिंहासन पर।
की फरक, बिराजेॅ तन-मन दोनों जों जंगल के आसन पर?
लेकिन, मैया के माँगबॅ कैहने शूल बनी केॅ कसकै छै?
नै एक घड़ी लेॅ टीस हृदय-आँगन सें कखनू टसकै छै।
कोनी करनी सें प्रेम-धरी केॅ ऐहनॅ रूप रोसैलॅ छै?
कल तक जे छेलै माय, आय सतमाय्ये जकाँ गोसैलॅ छै।
हुनका सें नै कुछ हुअेॅ सकै छेॅ भूल, भरीसक हमर्है सें।
कुछ होय गेलै अपराध, दण्ड मिललॅ छै हिनका जेकरा सें।
ई जीवन अजब पहेली छै, कखनी रिझतॅ के केकरा पर।
होनी केॅ कोय नै जानै छै, कखनी खिझतॅ के केकरा पर।
नारी के जीवन बड़ा कठिन, पति के झंझट के भागी छै।
यद्यपि समर्पित तन-मन सें, पति-परमेश्वर-अनुरागी छै।
नारी संघर्ष निराशा में आशा के जोत बनी आबै।
प्यारॅ के थपकी देॅ-देॅ केॅ सुखलॅ जीवन केॅ लहराबै।
पानी के बूँद बनी नारीं, जीवन के प्यास मिटाबै छै।
बे-रस मन केॅ सहलाबै छै, रुसलॅ मन-प्राण रिझाबै छै।
नारी पूरक छै पुरुषॅ के, आधॅ अनबूझ कहानी के।
उत्तर छेकै उलझन भरलॅ, पहलू के एक पिहानी के।
जीवन-पथ के पाथक नारी, सहचरी त्याग-बलिदानॅ के।
दुख के सहभागी, बड़भागी प्रेरणा-वंश के, आनॅ के।
प्राणॅ के पीड़ा सही-सही, पति के सुख में सुख मानै छै।
खारा पानी केॅ मथी-मथी नारीं अमृत घट आनै छै।
नारी छेकै जीवन छाया, नारी नर के भूषण छेकै।
पुरुषॅ के कमजोरी नारी, आ’ पुरुषॅ के बंधन छेकै।
नारी छेकै ऊ लॅत, पुरुष पौरुष के ठेढ़ॅ पाबी केॅ।
जे छूवै लेॅ आकाश, हहैली जाय छै सब कुछ त्यागी केॅ।
पुरुषॅ के बिना अधूरा छै, तप भरलॅ नारी के जीवन।
सौन्दर्य, शील सब कुछ छुच्छॅ, बे-रस, फीका, नीरस, बे-मन।
बेकार बिना पानी नदिया, जेना बिन जीबें देह व्यर्थ।
बहिना स्वामी के छाँव बिना, नारी के जीवन बिना अर्थ।
मानै छीं सुख सें पललॅ छीं, दुख के छाया नै देखने छीं।
लेकिन, एकरॅ की मतलब छै, दुख-छाया सें डरना चाहियॅ?
जे दुख देखी घबड़ाबै छै, सुख पाबै लेॅ अकुलाबै छै।
ऊ अज्ञानी, कायर, बुद्धू, जीवन के अर्थ गमाबै छै।
सोची-समझी केॅ चलना छै, दुनियाँ के आँखीं बसना छै।
जें कुल के नाम हँसाबेॅ, वै सब दुष्कर्मॅ सें बचना छै।
नारी छेकै बस सती रूप समृद्धि-रूप नारी छेकै।
जीवन के अर्जित पूण्य-रूप नर सें अभिन्न नारी छेकै।
तप सें भरलॅ नारी-जीवन ही धन्य छेकै आ’ सत्य छेकै।
ई वेदें शास्त्रॅ कहने छै, आत्मा रं वोहो अमर्त्य छेकै।
ज्योतिर्मय जीवन पाबै लेॅ आगॅ में सबदिन जलना छै।
सब मैल मिटेॅ, एकरा खातिर सोना रं रोज पिघलना छै।
जीवन अनमोल रतन छेकै, जीवन छेकै सपना रंगलॅ।
दू-चार घड़ी के दुनियाँ में अमरत्व-कहानी सें सनलॅ।
जीवन केॅ सार्थक करना छै, जीवन केॅ सफल बनाना छै।
कर्मॅ के सुन्दर वेदी पर, त्यागॅ के दीप जलाना छै।
हौ माय धन्य छथ झीकॅ देने छय जिनि जीवन समझै लें।
लिप्सा तेजी, बन-बन घूसी, पति-सेवा के रस बूझै लेॅ।
फूल्है में ने खाली, काँटा में भी जीवन-रस लहराबै।
महलॅ केॅ छोड़ी महापुरुष ने जंगल में ही सुख पाबै।
स्वामी के एक सहारा पर, सुख-दुख के झूला झूलै छै।
बालू में, बंजर पत्थल पर नारी जीवन भर फूलै छै।