भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चौराहे पर ज़िंदगी एक / रजनी अनुरागी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


एक

अक्सर ही निकलती हूँ रानीबाग के चौराहे से
और वहाँ ज़िंदगी का अलग ही रूप पाती हूँ
वैसे क्या फर्क पड़ता है
रानी बाग हो या आई टी ओ
चौराहे सब एक से ही होते हैं

वहाँ दिखते हैं छोटे-छोटे हाथ फैलाए
भीख मांगते फटेहाल, बच्चियों पर लदे बच्चे
जहाँ न माँ की ममता की छाँव, न पिता का दुलार
न खेलने को खिलौने और न पढ़ने को किताबें
ये तो ज़िंदगी का पाठ पढ़ते हैं
चौराहे पर भीख मांगते हुए
ज़माने की घृणा और वासना को सहते हुए
इस धरती पर पैदा होने का खामियाज़ा भुगतते हुए