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चौवर्ण पदवीं / भिखारी ठाकुर

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समाज की आपसी समरसता और सहयोगात्मक व्यवहार का संतुलन बिगड़ता जा रहा है। ब्राह्मण स्वयं को सदा से ऊँचा मानता आया है। शूद्र की उपेक्षा काफी दिनों से होती आ रही है। इन व्यवहारों के विरुद्ध विभिन्न वर्ग संगठित हो रहे हैं और संघर्ष का स्वरूप ले रहे हैं। यह राष्ट्र के लिए बहुत अहितकर है। विभिन्न प्रतीवों तथा प्रतिमानों के माध्यम से लोककवि सर्व-वर्ण समन्वय की चेतना देने का प्रयास कर रहा है।
(किन्तु कवि के निधन के लगभग 35 वर्षों बाद यह वर्ण-विरोध जातिवादी-विद्वेष में बदल गया है। जातिवाद का ताण्डव आज भोजपुरी-भाषा समाज की मूल समस्या बन गई।)

वार्तिक:

सभ देस में सभ जाति में चार वर्ण दिन-रात रोज सुराज करत बाड़न। वर्ण के नाम-मुख ब्रह्मण, हाथ क्षत्री, पेट बैश्य आ पैर शूद्र। चारो जाना के पद्वी ब्राह्मणे ‘बाबा’ क्षत्री के ‘बाबू’, वैश्य के ‘भइया’, शूद्र के ‘बबुआ’। पहिले बबुआ, त भइया, तब बाबू, तब बाबा। कवनो जाति के लाड़िका ”बबुआ“ कहावेलन, कुछ सेयान भइला पर उनकर छोट भाई ”भइया“ कहेलन, जवान भइला पर उनकर लरिका ”बाबू“ केहेलन, बूढ़ भइला पर उनकर पोता चाहे बस्ती के लोग ”बाबा“ कहेला। कवनो जाति चारो वर्ण के पदवी पा गइलन।

मुख के नाम ब्राह्मण ह बकलन तेह से, काहेंकि हाथ-गोड़ कहीं थूरा जास, कटा जास, लेकिन बोलिहन ना। अपने मुँह में चाहे कहीं दर्द होई भा कवनों तकलीफ होई, मुँह बोलेपन, अपने स्वार्थ खातिर ना, चारो वर्ण के स्वार्थ खातिर। इहे ब्राह्मण के काम ह।

हाथ के काम क्षत्री ह, छाया करेलन ते से; काहेकि तीनों वर्ण के ऊ अपने छाया करेलन। जइसे छाता हाथे चढ़ावेलन-उतारेलन भा कवनों फूस खपड़ा, के छावनी, चाहे पाका छत हाथे बनवायेलन, जेकरा छाया में अकेले हाथे ना अराम करस, चारो वर्ण के साथ अराम करेलन। इहे कम क्षत्री के ह।

पेट के नाम वैश्य ह। बिना चलले, बिना बोलले, बिना काम कइले पेट भर जालन बइठे-बइठे। जइसे भूख लगला पर पैर बजारे-हाटे धउरल चलेलन, मुँह भाव करके मांगेलन आ हाथ लेके, बना के मुँह के देलन, मुँह, पेट के जमा दे देलन। पेट खून बना के इनका पास कइसन तरजूई बटखरा बा कि ठीक-ठीक चारो वर्ण के वोजन करके बाँट देलन। तनिको अपना खातिर बेसी राखे के लालच नइखे। ई काम वैश्य के ह।

पैर के नाम शूद्र परल, शूद्र हवन तेह से। विना जूता के गजबज में धउरत चलत बाड़न। सभ बदन के नीचे रहेलन। कुली बनके वैश्य पेट, क्षत्री हाथ, मुख ब्राह्मण के ढोवले चलत बाड़न; तबहूँ लोग कहत बा कि पाव लागत बानी। ई ना केहू कहे कि माथ लागत बानी। अब गोड़ शूद्र पर गिरला, पर मुँह बाबा खखनि के सरधा से आसिरबाद देलन। हाथ क्षत्री के पीठ ठोकलन कि खूब काम कइलऽ आउर हाथे बिछवना करेलन; लेकिन पहिले गोड़े शूद्र ओपर चढ़ेलन। ई चारो वर्ण के मिलाप कइसन बा कि पैर धउरल चलेलन, हाथ भात चाहे कवनो भोजन के चीझ तइयार करके सान के मुँह ब्राह्मण के खिया देत बाड़न। मुँख अपने में नइखन राखत पेट वैश्य के भेज देत बाड़न। पेट अन्न के रस खून बना के चारों वर्ण की इहाँ पहुँचा देत वाड़न। यदि ई चारो वर्ण के आपस में बिगाड़ हो जाय; जइसे दिसा लगला पर पैर कहि देस कि हम ना जाइब, जेकरा लागल होय सेही जाय। अनपच के कारण से मर गइला पर पेटे ना मरिहन चारो वर्ण के हालत एके होई। हाथ कहसु जे हम मुँह में कवर ना लगाइब, तब अकेले मुँह ना मरिहन-साथे-साथे हाथी मरिहन। मुँह का पियास लगला पर पैर गइलन, आँख कह देत कि हमरा पानी पिये के नइखे, हम ना ताकब। तब इनार में गिरला पर आँख चाहे कवनो वर्ण ऊपरे ना रहि जइहन। असहीं हमनी के हिन्दू चाहे मुसलमान, बाबा, बाबू, भइया, बबुआ कहावत बानीं जा। हमनी का आपुस में मेल से रहला से सभ केहू का भलाई बा। आज हमनी के चारो वर्ण का हालत कइसन भइल बा, तेकर गाना:-

भजन

1.

सुनी बाबू रामानंद सिंह कहत भिखारी।टेक॥
लालच कइलन ब्राह्मण वैश्य शूद्र पिअलन तारी॥
झगरा-झूठ-चोरी बाबू कइलन बरिआरी॥सूनी॥
धरम धरती में धसल पाप भइल जारी॥
खोम का बधाव बाजल भइलन जनेव-धारी॥सुनी॥
शेष लागल केश पाकल देह भइल भारी॥
अब ना बोझा चली बेटा भइलन व्यापारी॥सुनी॥
कान-आँख मन्द परी लउकी ना दुआरी॥
गोली लेखा बोली मिली भुलिहन मन इयारी॥सुनी॥
बेटा-पोता में नेह लागल बा करिहन लाहंगाझारी॥
खुशी से भर पेट दाना ना दिहन इहे ह अत्याचारी॥सुनी॥
घेरी कफ-पीत चोला रोइहन पुका फारी॥
कवना दिन के कइलीं हम दुनिया से गरदनमारी॥सुनी॥
गजबज देख के केहू ना आई जब होई तइयारी॥
मुँहवा तोप के हट जइहन चलत नइखे नारी॥सुनी॥
ओह मालिक के याद करीं जो कहत बा बेद पुकारी॥
शेखी से सब कुछ बगदी जग देखी आँख पसारी॥सुनी॥
बहुत दिन से साथ बा निबाहस त्रिपुरारी,
पद भइल हद, ह ‘भिखारी’ के लबारी॥सुनी॥
सुनी बाबू रामानंद सिंह कहत भिखारी।

2.

रामनंद सिंह क्षत्री बंस में, सांती मत जिन पाये।
इष्टदेव गंगा के मानत, कौसिक गौत्र कहाये॥
संत-पितृ-गुरू को नित पूजन मानत ब्राह्मण गाये॥
परजा-रेज पर दुःख कुछ आवत सुख हित करत उपाये॥
नित उठि उदय, राम-भजन है क्रोध-लोभ बिसराये।
कहे ‘भिखारी’ उनसे शिक्षा संघति से हम पाये॥

वार्तिक:

चार वर्ण ब्राह्मण, छत्री, वैश्य, शूद्र। बाबा ब्राह्मण, बाबू छत्री, भइया वैश्य, बबुआ शूद्र। मालूम होला जे पहिले पदवी ना रहलन हा। हमनी का सुनीला, सतानंद बसिष्ठ जी। आज बाबा जी के पद्वी उपधया जी, दुबे जी, तिवारी जी, चौबे जी, पान्डे जी, पाठक जी, मिसिर जी, ओझाजी। बाबू के पदवी पहिले के हमनी का सुनीला जनक जी, दसरथ जी, राजा हरिश्चन्द्र। आज बाबू दशरथ सिंह। सत ”नारायण“ व्रत कथा में हमनी का सुनीला साधु बनिया, आज वैश्य के पदवी साधु साह, जवन पदवी आज पोस्ट आफिस में लिखालन। रजिस्टरी अदालत कचहरी में पुकार हमनी का सुनीला फलना साह, हाजिर। पदवी आज छपरा जिला में अबहीं बाड़न। धनिक चाहे गरीब बनिहरा के लोग चाल करेला फलना महतो, फला ठाकुर, फलना माझी आउर जगह पर पदवी कम पर गइल।

चौपाई

बात-बात में जात के पदवी छपरा के लोग होखेला।
अवरु जगहा ऊँच-निचाई बुर्बक चतुर जोखेला।
एह तऊल से जात के पदवी के मर्यादा हट गउये।
छपरा बन्ध नाता के प्रेमी घटके झट दे खट गउये।
बाबा-बाबू-भइया-बबुआ कहत में मनसरमावेला।
सान हरान जाने के कइलस भरम भूत भगावेला।

दोहा

‘बाबा-बाबू-भइया-बबुआ’ का पदवी के भाव।
कहत ‘भिखारी’ हाथ जोरि के ठीक चाहीं बरताव॥
बाबा-बाबू का बोली के भइया कइलन कान।
लागल टिटीहरी का बबुआ जी करत बखान॥
ब्राह्मण-क्षत्री-बइस शूद्र, जगह-जगह में बहुत समुद्र॥
चार बरन तन हलका मांहीं, लउकत नइखन खोजे के चाहीं।
ब्राह्मण बक्ता मुँह सुखदायक, हरदम दया करत जनम लायक॥
क्षत्री हाथ साथ में बानी, कायापुर करत राजधानी।
पेट बइसले बजार लगावत, जहाँ-तहाँ से रसद मँगावत॥
शूद्र पैर परमारथ मांहीं, बिना हुकूमत दउरत जाहीं॥
एह भाइन कर देखी के प्रीति, चली से जग में सहजे जीती॥
रोज सुराज बढ़ावत रहता, अइसन मास्टर मिली के सहाता॥
बिना दाम के सिखवनहारी, कुतुपुर के कहत ‘भिखारी’॥

दोहा

प्रथम शूद्र द्वितीय बइस, तृतीय क्षत्री हाथ।
चौथे ब्राह्मण बकत मुख, सेही रहत एक साथ।

चौपाई

हिन्दु हिन्द देश के बामी, भुवन चारिदस करत प्रकासी॥
कवनो देश जाति हो केहुं, चारबरन महलेखा लेहु॥
बरन चारी सनमत बा एका, देखि कर मन करहूं विवेका॥
भोजपुरी बोली ह जवन, अक्षर पर व परत बा तवन॥
तवने ततवने लिखत बानी, ना विद्या के हाल जानी॥
दियरा जंगल के रहवइया, काता हईना हई गवईया
घर कुतुपुर छपरा जिला, गंगा सरयुग तीर रहीला।
नाई जात भिखारी नामा, चरचा चलत बा चाकर लामा।
जड़ से चढ़त उपर चलि जइहन, तरू से तोरी तबही फल खइहन॥