भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
छंद / राधावल्लभ त्रिपाठी
Kavita Kosh से
छंद के बंध टूट जाने पर
यति और लय के भंग हो जाने पर
जो कुछ जो कुछ रचा गया
वह भी वह भी हुआ छंद ही।
उघड़े रस्ते नए-नए
पद्धतियाँ दिखीं और भी कई-कई
संग-संग
चल पड़े छंद
लंबी यात्रा में पाथेय बने।
जो सत्त्व छंद में ढाला था
मन के रजःपटल को
दूर वही करता आया है
वाणी की धार कुल्हाड़ी की
देती रही विदार
तमस का काला परदा।