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छंद 116 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मनहरन घनाक्षरी
(कलहांतरिता नायिका-वर्णन)

दीन्हौं मन रंचऊ न चीठिनि-बसीठिनि पैं, कीन्हीं काँनि ‘कान’ की दीन-अरजनि मैं।
‘द्विजदेव’ की सौं जऊ हारीं वे सिखाइ तऊ, सुमुखि-सखीन की सुनीं न बरजनि मैं॥
ए री मेरी बीर! धीर का बिधि धरैगौ हियौ, चातकी चबाइनि की चोखी चरजनि मैं।
मेचक-रजनि मैं, कदंब लरजनि मैं, सुमेघ-गरजनि मैं, तड़ित-तरजनि मैं॥

भावार्थ: हे सखी! मैंने उनकी न तो प्रेमपत्री पर और न प्रेषित दूतों की बातों पर ही ध्यान दिया, कहाँ तक कहूँ कृष्ण के स्वतः आर्त निवेदन पर भी मैं न द्रवित हुई। वे बेचारी सुंदरी सहचरियाँ सिखा-सिखाकर हार गईं, पर मैंने उनकी भी एक न मानी; परंतु अब जो पपीहे के तीखे बोल कानों में पड़ेगे और अँधेरी रात छाएगी तथा कदंब की डारें लहराएँगी, बादल गरजेंगे एवं बिजली चमचमाकर डरावेगी तो किस प्रकार मैं धैर्य धारण करूँगी।