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छंद 132 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
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मत्तगयंद सवैया
(लक्षिता नायिका-वर्णन)
हारीं उपाइ सबै करिकैं, पैं न आज लौं देखे कहूँ पतियाने।
कैसैं प्रतीति परै मन मैं, अब और धरैंगे तिहारेई लाने॥
होत सुखी ‘द्विजदेव’ कोऊ, मन के लडुवाँन के भोजन ठाँने।
कौंन-सी ह्वै है नफा अलि तोहिँ? सो कैसैं रसाल की चाँह भुलाने॥
भावार्थ: हे अलि! अर्थात् सखी व भ्रमर! तू ऐसे रसाल (नायक व आम) से प्रीति कर क्या लाभ उठाना चाहता है? क्योंकि हम सब तो अनेक युक्ति करके थक गईं पर इसे पतियाते (विश्वास करते व पल्लवित होते) नहीं देखा, फिर भला मन में कैसे विश्वास हो कि वह तुम्हारे ही लिए मौर (विवाह-मुकुट व मंजरी) धारण करेगा। तो फिर क्या केवल मन के मोदक खाने से भूख जा सकती है? अर्थात् कदापि नहीं।