छंद 140 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
रूप घनाक्षरी
(मध्याधीरा नायिका-वर्णन)
बाँके, संक-हींने, राते-कंज-छबि-छींने माँते, झुकि-झुकि झूँमि-झूँमि काहू कौं कछू गनै न।
‘द्विजदेव’ की सौं ऐसी बनक-बनाइ बहु-भाँतिन-बगारैं चित-चाँहन चहूँघाँ चैन॥
पेखि परे प्रात जौ पैं गातन उछाह-भरे, बार-बार तातैं तुम्हें पूँछती कछूक-बैन।
एहो ब्रजराज! मेरे प्रेम-धन लूटिवे कौं, बीरा खाइ आए कितै आपके अनौंखे-नैन॥
भावार्थ: हे प्राणनाथ! आज प्रभात ही में आपको उत्साहित देख मैं कुछ पूछने का साहस करती हूँ, वह यह है कि आपके पीक-लीक युक्त अनोखे न यन किसी वैरिणी के घर से मेरे प्रेमरूपी धन (सर्वस्व) को लूटने के लिए बीरा खाकर आए हैं। यह प्राचीन प्रथा है कि किसी दुस्तर कार्य के संपादन के निमित्त सभा में पान का बीड़ा रखकर आज्ञा दी जाती थी कि जो वीर उक्त कार्य के संपादन में समर्थ हो वह उसको उठाकर खा ले। प्रायः ऐसे कार्यों के संपादन करने वाले वही होते हैं जो प्राणपण से कटिबद्ध हो जावें; ऐसे साहसी लोगों को ‘बाँके’ कहते हैं। बाँकों के स्वभाव का नयनों पर रूपकारोप किया है।