छंद 146 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(आलंबन और उद्दीपन विभाव-वर्णन)
सावनी के ब्याज आज आई गाँव-गाँवन तैं, भावन तैं लीन्हैं छरी करन प्रसून की।
गुरु-जन हूँ मैं गूढ़े गुननि रिझावैं स्याम, गोरी गुनवती गाइ तानैं ठाह-दून की॥
‘द्विजदेव’ साजैं सबै अंगन सुरंग चीर, झालरैं झमाकैं लगी कोरन कतून की।
इंद्र की बधून की सुदेखी छबि तूने इत, दूनी छबि देखि री! गुबिंद की बधून की॥
भावार्थ: हे सखी! तूने बीरबहूटियों की शोभा तो देखी ही है, आज उससे दूनी शोभा कृष्ण की प्रेमास्पद बधूटियों की देख, जो हरियाली तीज के त्योहार के ब्याज से भिन्न-भिन्न ग्रामों से हाथों में फूलों की छड़ी लिये एकत्रित हो गुरुजनों के समक्ष भी गूढ़रीति अनुसार ठाह और दून की तानें लेकर श्याम (श्रीकृष्ण) को प्रसन्न करती हैं तथा अंगों में रँगीली रुचिर साड़ियाँ, जिनमें कलाबत्तू की किनारी टँकी है, पहने हुए कैसी शोभा को प्राप्त हैं।