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छंद 190 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दुर्मिल सवैया
(पूर्वानुरागिणी परकीया नायिका-वर्णन)

मद-हींने गयंद बसे बन मैं, छबि नाँहक छीनीं मरालन सौं।
हुते सारस जे वे सुभाइ सुहावन, भाजि बचे कहूँ तालन सौं॥
इतने मैं न भूलै कोऊ ‘द्विजदेव’ पुकारि कहौं व्रज-बालन सौं।
अब हीं नहिँ ह्वै हैं खराब किते घर, मोहन की इन चालन सौं॥

भावार्थ: कोई पूर्वानुरागिणी नायिका अपनी सहेली व्रजबालाओं से कथोपकथन में कहती है कि अपनी मंद गति से मनमोहन प्यारे ने मत्त गजराजों के मद का मार्जन किया व हंसों की गति की छवि ऐसी छीनी कि इन दोनों ने लज्जित हो वन के वास को ही समीचीन (उचित) समझा और अपने मुख की शोभा से कमल-पुष्पों का ऐसा अनादर किया कि वे अद्यापि तड़ागों में छिपकर कालक्षेप करते हैं, सो अभी क्या देखा है, इस चाल-ढाल से व्रजमंडल में न जाने कितने घर बिगड़ जाएँगे अर्थात् कितनी कुल-वधुओं की कुल-कानि छूटेगी। (चाल शब्द में अभिधामूलक व्यंग्य है। चाल-गति अथवा चाल-ढाल व रहन-सहन को कहते हैं।)