छंद 193 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
दुर्मिल सवैया
(परस्पर फाग-वर्णन)
इत तैं बनि आईं नई नवला, उत तैं मनमोहनऊँ उँमहे।
लहि साँकरी-खोरि बिथारि गुलाल, बिसाल दुहूँ-भुज-जोरि रहे॥
‘द्विजदेव’ अभूत भई यह ताछिन, देखैं बनैं पैं बनैं न कहे।
कसि बोरिवौ चाँहत जौ लौं लला, रस की सरिता महँ आपै बहे॥
भावार्थ: एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि होली खेलते समय मैंने विचित्र गति देखी। एक ओर से तो नवीनवयस्का नायिका अर्थात श्रीराधिकाजी आईं और दूसरी ओर से मनहरनहारे श्री कृष्णचंद्र भी होली खेलने के उत्साह से भरे हुए आ उपस्थित हुए; ‘साँकरी-खोर’ (एक विशेष संकीर्ण मार्ग, जो व्रजमंडल में प्रसिद्ध है) को पाकर गुलाल की धूँधरी में परस्पर आलिंगन किया। हे सखी! उस समय की विचित्रता देखते ही बनती थी, उसका विवरण जिह्वा से नहीं हो सकता, जब तक श्यामसुंदर रंग में बरजोरी नायिका को डुबोना चाहें तब तक प्रेमाधिक्य के कारण वे रसरूपी नदी में स्वयं बह चले।