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छंद 207 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मत्तगयंद सवैया
(नायक विरह-वर्णन)

और कौ केतऊ झौर सहै, पैं न बावरी! रावरी आस भुलैहै।
जैहै जहाँ-ई-तहाँ ‘द्विजदेव’, तिहारेई नाम सौं जाइ बिकैहै॥
त्यागिवौ ताहि न जोग तुम्हैं, हमसौं नहिँ काँची कछू कहि जैहै।
बौरौ-अबौरौ, रुखानौं-पत्यानौं, तऊ वह तेरौ ‘रसाल’ कहैहै॥

भावार्थ: आम्र-पक्ष में: औरों से कितना ही झकझोरा जाए अर्थात् हिलाया जाए तथापि तुझसे उसे यह आशा नहीं हो सकती कि तू ऐसी निठुर होगी कि अपने लगाए हुए कोमल ‘आम्रतरु’ को ऐसा झकझोरेगी कि उसकी क्षति हो और हे सखी! जहाँ-जहाँ उस आम्र का फल बिकेगा वहाँ-वहाँ तेरे ही नाम से उसकी ख्याति होगी कि अमुक व्यक्ति की अमराई का फल है। इस कारण उस वृक्ष का परित्याग कदापि उचित नहीं है। मैं ऐसी कच्ची ठकुरसोहाती कभी भी नहीं कहूँगी, क्योंकि वह ‘वृक्ष’ चाहे किसी भी अवस्था में हो अर्थात् बौरा हो चाहे न बौरा हो, चाहे सूख चला हो या पल्लवित हो, तथापि तेरा ही कहलावेगा।

नायक पक्ष में: अन्य परकीया स्त्रियों को कितना ही झिझकारा (तिरस्कृत किया) जाए किंतु तुझ सी प्राणप्यारी से उसको कभी ऐसी आशा नहीं, यद्यपि वह अन्यत्र किसी नायिका के घर जावे तथापि तेरे ही नाम से आदर पावेगा। इस कारण उसका त्याग तुझको उचित नहीं। मुझसे कदापि तेरे प्रसन्नतार्थ ठकुरसोहाती नहीं कही जाती, क्योंकि वह चाहे किसी भी अवस्था में हो अर्थात् बौराया हुआ (विक्षिप्त) या सयाना (चतुर) हो, रुक्ष (दुःशील) हो या मर्यादायुक्त (शीलवान्), किंतु तेरा ही प्राणवल्लभ यानी रसाल कहलावेगा। (इस कवित्त में झौर, बिकैहै, बौरौ, अबौरौं, पत्यानौं इन शब्दों में अभिधामूलक व्यंग्य है।)