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छंद 22 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
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मौक्तिकदाम
नहीं नव अंकुर ए सरसात। धर्यौ छिति हूँ कछु कंटक गात॥
रहे नहिँ ओस के बुंद बिराजि। प्रसेद के बिंदु रही छिति छाजि॥
भावार्थ: ये जो नए अंकुर पृथ्वी में देख पड़ते हैं सो अंकुर नहीं, किंतु पृथ्वी के उठे हुए रोमांच हैं एवं इन अंकुरों पर जो ओस के बिंदु देख पड़ते हैं, सो ओस के बिंदु नहीं किंतु पृथ्वी के स्वेद-सलिल के बिंदु हैं अर्थात् ये नए अंकुर तथा ओस-कण नहीं, पृथ्वी को रोमांच तथा स्वेद हुआ है।