छंद 236 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
दुर्मिल सवैया
(उपालंभ-वर्णन)
अति लाल गुलाल-घटा की छटा, ससि-आनन की दुति खींनी भई।
लहि बीर अबीर की चाँदनी नैननहूँ अरबिंद की रीति लई॥
‘द्विजदेव’ जू ऐसे अनौंखे गुपालहिँ, कौंन उराहनौं देह दई।
उन आपने लेखैं बिनोद रच्यौ, इत प्यारी गुलाब-सी मींजि गई॥
भावार्थ: एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि देखो, यह अनोखे गोपाल की होली है, उन (कृष्णचंद्र व गौ चरानेवाले गँवार) से कौन इस बात का उलाहना दे। देखो तो, ऐसी अधिकाई से गुलाल उड़ाया कि मानो घटा सी छा गई, जिसने ‘राधा प्यारी’ के मुख-चंद की कांति को मलीन कर दिया है और हे सखी! अबीर अर्थात् अभ्रक चूर्ण को ऐसी बहुतायत से उड़ाया कि जिसपर सूर्य-रश्मि पड़ते हुए भी धुँधुलाई के कारण यद्यपि विशेष तीक्ष्ण चमक नहीं हुई तथापि चंद्रिका की-सी द्युति प्रकट हुई, जिसे देख प्यारी के अरविंद रूपी नयन अबीर-कणों के पड़ने के भय से मुँद गए। उन्होंने तो अपनी जान प्रसन्नता के हेतु एक कौतुक रचा, इधर प्यारी राधिका गुलाब के फूल-सी गहागही में दलमलउठी। फिर तो गौ चरानेवाले अनभिज्ञ अहीर गुलाब-पुष्प की कदर क्या जाने? (इस कवित्त में काव्यलिंग अलंकार है अर्थात् बादलों के आने के कारण शशिमंडल में मलीनता आती ही है और वैसे ही चाँदनी के समय में कमल का मुद्रित होना भी उचित ही है, गोपाल शब्द में अभिधामूलक व्यंग्य है।)