भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
छंद 34 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
Kavita Kosh से
मत्तगयंद सवैया
(पुनः वसंत की नवीन शोभा का वर्णन)
फूले घने, घने-कुंजन माँहिँ, नए छबि-पुंज के बीज बए हैं।
त्यौं तरु-जूहन मैं ‘द्विजदेव’, प्रसून नए-ई-नए उनए हैं॥
साँचौ किधौं सपनौं करतार! बिचारत हूँ नहिँ ठए हैं।
संग नए, त्यौं समाज नए, सब साज नए, ऋतुराज नए हैं॥
भावार्थ: ऐसी अपूर्व छवि कभी काहे को देखी व सुनी थी कि फूले हुए घने कुंजों में नए छवि-समूह के बीज बोए हुए हैं और तरु समूह नवीन पुष्प भार से अवनत हो रहे हैं। हे करतार! कुछ विचार में नहीं आता कि यह मैं स्वप्न देखता हूँ या साक्षात्; क्योंकि वसंत-शोभा तो प्रतिवर्ष देखता रहा किंतु अबकी तो नवीन संगी, नवीन समाज और सब नवीन सामग्री ऐसी दीखती हैं मानो महाराज ‘ऋतुराज’ नए ही हो गए हैं।