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छंद 73 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दुर्मिला सवैया
(मानिनी-प्रति उपालंभ-वर्णन)

द्विजदेव’ जू नैंक न मानी तबै, बिनती करी बार हजारन की।
इक माखनचोर के जोर लई, छबि-छीनि सिखी-पखवारन की॥
लहि ऊँची उसास बिसूरै कहा! लखि सैन घनी घन-भारन की।
दिन द्वैक मैं पैहै सकेलि सबै, फल बेलि बई जो अँगारन की॥

भावार्थ: कवि कहते हैं कि हजारों बार विनती की, किंतु हे राधाजी! आपने शिक्षा न मानी और माखनचोर से प्रीति जोड़ी, जोकि इस कारण से अनुचित थी कि चोरों से भी कोई प्रीति करता है! जब वह माखनचोर चित्त चुराकर चलता हुआ तो ‘ऊँची-उसाँस’ लेकर क्या स्मरण करती हो! क्योंकि चोरी करना तो चोर का धर्म ही है और चित्तचोर के जोर पर जो तुम्हारे केशपाश हैं उन्होंने पावस के अनुचर मोरों की निंदा की, तो अब उसको अपने दूसरे अनुगामी पावस ऋतु की महान् वारि धारा से प्यारे के वियोग में उसका दुःख देना उचित ही है, अभी क्या दो-चार दिन में और भी अपने किए का फल पाओगी, जैसी अंगार की बेलि बोई है वैसे ही अंगाररूपी फल भी इस वारि-सिंचन से प्राप्त होंगे; क्योंकि चोर-उचक्के इत्यादि के भरोसे महान् पुरुषों से वैर साधना उचित नहीं था।