छंद 79 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(पुनः वसंत-वर्णन)
गुंजरन लागे भौंर ठौर-ठौर कुंजन मैं, लाग्यौ बेलि-पुंजन दवा सौं काम-जुर कौ।
बोलन लगे हैं पिक, चातक, चकोर, मोर, बँधि गयौ सरस सनाकौ एक सुर कौ॥
काम-बन बानिक बिलोकि यहि भाँति दीह, दुरि-दुरि जात दुख कौंन के न उर कौ।
बंद भयौ चाँहत सुरेस कौ समाज आज, मंद भयौ चाँहत अनंद सुर-पुर कौ॥
भावार्थ: जिस काम-वन के प्रत्येक कुंज में भौंरों के झुंड गुंजार करते हैं, योंही वेलि-वृंद में मानो काम-ज्वर की (लाल-लाल पुष्पों के खिलने से) दावाग्नि सी लग रही है, जहाँ कोयल, पपीहा, चकोर और भौंरों के बोल मिलने से एक विचित्र स्वर समुदाय सुन पड़ता है। भला उस (काम-वन) की शोभा देख किसके चित्त का प्रबल दुःख दूर नहीं होता। अतः मेरी जान तो स्पर्धा के मारे इंद्र का साज-समाज भी बंद और स्वर्ग का सुख भी मंद हुआ चाहता है।