छठमोॅ सर्ग / रोमपाद / चन्द्रप्रकाश जगप्रिय
रोमपाद के खुशी-हर्ष के
कुछ नै कहीं ठिकानोॅ,
हुनकोॅ मन के सुख तेॅ आबेॅ
स्वर्गे पर छै, मानोॅ।
रोआं-रोआं पुलकित-हर्षित
मधु रं बोल झरै छै,
आय मालिनी स्वर्ण तरी रं
जग के बीच तरै छै।
शृंगी ऋषि शांता के साथें
अवध जाय छोॅ गेलै,
दशरथ के नै, रोमपाद के
ही जों साध पुरैलै।
रोमपाद गदगद होय बोलै
आपनोॅ परमे प्रिया सें,
मुँह-आँ खी के भाषै सें नै
रोमोॅ के जिह्वा सें।
”हे रानी, जानोॅ धरती पर
अवध स्वर्ग रं साजै,
जत्तेॅ लोक हुएॅ पारै छै
सब तेॅ वहीं विराजै।
”भुवन-भुवन के लोक-लोक के
सुख-श्री एक अवध में,
सागर जेना समैलोॅ लागै
अवध भूमि के हद में।
”गुरु-वशिष्ठ रं ज्ञानी जैठां
भूत-भावी के ज्ञाता,
जे नगरी केॅ देखी केॅ ही
पुलकित हुऐ विधाता।
”जोॅन अवध के प्रजा जनो तक
सुख सम्पत सें भरलोॅ,
जेकरोॅ जनम अवध में होलोॅ
जीते जी ही ऊ तरलॉे।
”माँटी सोना, बालू चाँदी
जल अमृत रं जैठां,
शांता संग दामाद पहुँचता
परसू भोरे वैठां।
”पर अभिये सें होतेॅ होतै
अभिनन्दन तैयारी,
लगतेॅ होतै राजवाटिका
रं ही आरी-बारी।
”उठतें होतै गंध अगर के
धूपो आरो मलय के,
आवी रहलोॅ छै दशरथ के
निश्चय भाग्य-उदय के।
”दुख कन्हौं जों छिपलोॅ होतै
तुरत गमैतें जान,
यज्ञ कुण्ड सें सूर्यवंश के
ऐतै जे दिनमान।
तीनो भाभी के गोदी में
तीनो लाल उतरतै,
भाग्य स्वर्ग के नौड़ी-नाँखी
वैठां पानी भरतै।
”पुत्रेष्ठि जंग ऋषि कुमार के
खाली कैन्हौं की जैतै,
मनुख रूप में हमरा लागै
भगवाने ही ऐतै।
”यही कामना हमरोॅ छै कि
लाल हुवौ तेॅ हेन्होॅ
कीर्ति तीनो लोक विराजेॅ
दशरथ के छै जेन्होॅ।
”दुख नाशेॅ अवधे के नै बस
सृष्टि के दुख नाशै,
जहाँ कहीं भी दुष्ट दहाड़ै
ओकरा जाय विनाशै।
सपना मे देखलेॅ छी हम्में
दिव्य पुरुष एक हेनोॅ,
आपनोॅ जीवन में कभियो भी
नै देखलेॅ छी जेहनोॅ।
”दिव्य कमल फूल पर खड़ा अडिग छै
धनुष हाथ में ले लेॅ
मुस्कैतें रं, धरती केरोॅ
सबटा भार उठैनें।
”तीनो लोक झुकैलेॅ माथोॅ
नमन करै में रत छै
अण्डज, पिण्डज, उद्भिज सब्भे
जे भी जहाँ, विनत छै।
उमड़ै छै चन्दन-सुवास तेॅ
हाँसै धरा-गगन छै,
कोॅन सुधि में जाने सबटा
सुधबुध हीन मगन छै।
”धरती पर निश्चय ही लागै
देव उतरतै सचमुच
सौंसे सृष्टि में होय रहलोॅ
कुछ छै चुपचुप-चुपचुप।
देखोॅ रानी, तुलसीचौरा
के तुलसी हरियाबै,
घोर अमावश के बीचोॅ में
भोर निकलतोॅ आबै।