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छठि / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
उठे हुए ये हाथ करोड़ों खिले कमल के दल-से
स्वर्ण चाक या उभर रहा है सूर्य बाल संन्यासी
बिखर रहा है पुण्य, काँपते जन्म-मरण चैरासी
गिरती हैं गंगा की धारें कोटि कलश-शतदल से ।
कोटि-कोटि कर्णों की भक्ति गंगा के घाटों पर
परवैतिन के मुख मण्डल पर माता छठि की छाया
अनहद के नादों से गूंजित एक-एक की काया
सुर के रंगों में मनौन का धरपनिया वाटों पर
सर-सरिता पर इन्द्रधनुष का कातिक में यह मेला
आज सूर्य की छटि के पहिले छाया बहुत विभोर
पके हुए केले-सा मौसम इक्षुदण्ड-सा भोर
ग्रीष्म-शीत के संधिपत्रा पर हस्ताक्षर की वेला ।
सब पर स्नेह सूर्य का देखा एक बराबर इकरस
नीचे जड़-चेतन की लीला हुई जा रही समरस ।