छुट्टियाँ / शशि पाधा
पिछले वर्ष की छुट्टी में जब
अर्जुन अपने गाँव गए थे
देख के ऊँचे पेड़ घनेरे
कितने ही वो खुश हुए थे
कहीं नीम था, कहीं था बरगद
कहीं आम था, कहीं अनार
कहीं था पोखर, कहीं तलैया
कहीं थी झरनों की झँकार
कभी वो तोड़ें पकते जामुन
भर-भर मुट्ठी खाएँ बेर
कभी चढ़ें वो पीपल डाली
कभी बनें वो भालू -शेर
भरी दोपहरी नील गगन में
उँची-उँची उड़े पतँग
बाँध के डोरी उड़ न पाएँ
मन में रहती एक उमंग
खुली छत पर श्वेत बिछौना
सप्तऋषि की गिनती करते
कभी ढूँढ़ते ध्रुव तारे को
चँदा से दो बातें करते
खेल-खेल में दिन थे बीते
रातों को नित नई कहानी
खील-बताशे, दूध मलाई
भरा कटोरा देती नानी
न था उठना सुबह सवेरे
न कोई लिखना-पढ़ना
जी भर खाना, जी भर सोना
जी भर मन की करना
बीत गईं क्यूँ छुट्टियाँ जल्दी
अब फिर लौट के जाना होगा
महानगर के बन्द भवनों में
कैसे दिल बहलाना होगा ?