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छोटी चीज़ों का दुख / राजूरंजन प्रसाद
Kavita Kosh से
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में
चुनौती बनकर आई अक्सर
छोटी-छोटी चीज़ें
मसलन
माँ की साड़ी
दोस्तों की बेकारी
मज़दूरों के काम के घंटे
सप्लाई का पानी
बच्चों की फीस
ऐनक की अपनी टूटी कमानी
जाड़े में रजाई और
अंत में दियासलाई
आग तो फिर भी ले आया
मांगकर पड़ोस से
जहां चूल्हे में जल रहा था
पड़ा-पड़ा दुख!
(रचना:18.1.2001)