छोड़ दे ए दिल अक़्लो—ख़िरद / सुरेश चन्द्र शौक़
छोड़ दे ए दिल अक़्लो-ख़िरद<ref> बुद्धि</ref>की ये टूटी—फूटी पगडंडी
इश्क़ की मंज़िल तक जाती है सिर्फ़ जुनूँ <ref>उन्माद</ref>की ही पगडंडी
दिल का रमता जोगी जाने किसकी खोज में घूम रहा है
बस्ती-बस्ती, सहरा—सहरा, दर-दर, पगडंडी—पगडंडी
पहले ही तुम सोच समझ लो प्यार की मंज़िल बड़ी कठिन है
राह में कोई पेड़ न साया, कोसों धूल-भरी पगडंडी
बैठ चुके साये में थक के तेरे ढूँढने वाले कब के
कैसी मंज़िल, कैसे राही, कैसे पग, कैसी पगडंडी
उस तन्हा मस्कन<ref>निवास स्थान </ref> तक जाना ऐसा भी क्या मुश्किल होगा
आख़िर वहाँ भी जाती होगी कोई डगर, कोई पगडंडी
सावन की रिम—झिम में अब भी तुझ को याद किया करते हैं
गीले पत्ते, हरी टहनियाँ, मेरा दिल, भीगी पगडंडी
शाम पड़े तो एक सिरे पर आँख लगाये गुम-सुम दोनों
जाने क्या तकते रहते हैं मैं और ये सूनी पगडंडी
तुझ को छोड़ के जाने वाला वापस कभी नहीं आयेगा
किसकी राह तका करती है अब ऐ दीवानी पगडंडी
दिल की बातों पर मत जाना मेरा तेरा मिलन कठिन है
तू है रौशन काहकशाँ—सी<ref>आकाश गंगा—सी</ref> मैं इक धुँधली-सी पगडंडी
‘शौक़’! कई बरसों के बाद अब के जब मैं गाँव गया तो
पहरों मुझ से कहती रही कुछ एक पुरानी—सी पगडंडी.