जंगलों-पहाड़ों का सिलसिला / हरिवंश प्रभात
जंगलों-पहाड़ों का सिलसिला देख ले,
रुक-रुक परदेशी, पलामू जिला देख ले।
ऊबड़-खाबड़ धरती, छोट-छोट टोपरा,
कहऊँ ऊँचा महल देख, कहऊँ नीच झोपड़ा,
कहऊँ कहऊँ खाई, कहऊँ टीला देख ले।
रुक-रुक परदेशी....
उगते सुरुजवा नेतरहाट में भाये,
बेतला में जैविक उद्यान लुभाये,
नहा-धोके कमलदह में कमल खिला देख ले।
रुक-रुक परदेशी....
घर-घर में लइकन सुनेला कहनियाँ,
राजा मेदनिया घर-घर बाजे मथनियाँ,
हमनी के गौरव पलामू किला देख ले।
रुक-रुक परदेशी....
कोयल आउ ओरंगा के संगम निराला,
तहले-अमानत बेकहले आ जाला,
सदाबह-बटाने घाट पथरिला देख ले।
रुक-रुक परदेशी.....
बिचरेला सगरो नीलाम्बर-पीताम्बर
मेदिनी नगर बीच शोभे गोलाम्बर,
धर्मों के मेला में रूप मिला देख ले।
रुक-रुक परदेशी....
गाँव घर के अखरा में झूमें जवानी,
मउग-मरद नाच रहल बनके राजा रानी,
मानर आउ झाँझर के ताल मिला देखले।
रुक-रुक परदेशी....
देश में जवानन के मस्ती बंटाला,
बाहर के दुश्मन बहुर के ना जाला,
मेहनत से तन गठीला, मन रंगीला देखले।
रुक-रुक परदेशी....