जटिल बना तो बना मनुष्य / मनोज कुमार झा
मेरी जाति जानकर तुम्हें कुछ भी प्राप्त नहीं होगा
तुम और मेरी जाति के लोग एक सरल रेखा खींचोगे और चीख़ोगे
कि उसी पार रहो, उसी पार
मगर इन कँटीली झाड़ियों का क्या करोगे
जो किसी भी सरल रेखा को लाँघ जाती हैं, जिनकी जड़ें अज्ञात मुझे भी
हालाँकि मेरी ही लालसाओं से ये जल खींचती हैं
एक धर्म को तुम मेरा कहोगे और भ्रम में पड़ोगे
कोई एक ड्रम की तरफ़ इशारा करेगा
और कहेगा कि यह इसी में डूबकर मरेगा
मगर हज़ारों नदियाँ इस देश में, इस पृथ्वी पर
मैं किसी भी जल में उतर सकता हूँ
किसी भी रंग का वस्त्र पहने और किसी भी धातु का बर्तन लिए
तुम मेरा जन्मस्थान ढूँढोगे और कहोगे
अरे यह तो वहाँ का है, वहाँ का
किन्तु नहीं, मेरा जन्मस्थल धरती और मेरी माँ के बीच का जल है आलोकमय
अक्षांशों और देशान्तरों की रेखाओं को पोंछता
चींटियों का परिवार इसमें, मधुमय छत्ता, कोई साँप भी कहीं
दूर देश के किसी पँछी का घोंसला, किसी बटोही का पाथेय टँगा
मनुष्य एक विशाल वृक्ष है पीपल का
सरलताओं के दिठौनों को पोंछता
इस चौकोर इतिहास से तो नमक भी नहीं बनेगा
कैसे बनेगा मनुष्य