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जनुष् पर्व / अमरेंद्र

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रात की बेला सघन थी, पृथा चिन्तित,
थी बहुत आश्वस्त लेकिन भय भी किंचित-
"क्या हुआ जो लौट कर आया न प्रहरी?"
मन की शंका हो रही थी और गहरी-

" क्या हवा अनुकूल होकर बह न पायी?
क्या वरुण ने राह में बाधा उठायी?
क्या दिशा भटका गई संकेत–पथ को?
कौन रोके यह खड़ा है समय–रथ को?

"क्या हुआ जो लौट कर आया न प्रहरी"
मन की शंका और गहरी और गहरी।
लग रहा था एक युग–सा एक क्षण तक,
बन के पर्वत ही खड़ा हो, एक कण तक।

मन यही करता, निकल जाए भवन से,
चाँद जैसे निकल पड़ता श्याम घन से।
कर यही निश्चय पृथा ने गगन देखा,
नील नभ पर रश्मियों को मगन देखा।

फिर गगन में ज्वार–भाटा उर्मियों का,
नृत्य जिस पर बादलों का, बिजलियों काय
एक तारक बीच में कब से सिहरता,
डूबता है उर्मियों में, फिर उभरता।

ले रहा शिशुरूप, फिर किलकारियाँ हैं,
गीत मंगल गा रही–सौ नारियाँ हैं।
अंग ज्यों कंचन तपा–सा बहुत दपदप,
कर रहा है लघु करों से वारि छपछप।

भोर आँखों में जगा हो, रात सर पर,
गौर से देखा पृथा ने फिर ठहर करय
लघु चरण ऊपर उठाता, फेंकता है,
और करवट लेके नीचे देखता है।

गुरु, विभाकर, सूर्य सब आगे हुए हैं,
कर–चरण के भाग्य सब जागे हुए हैं
बह रहा है स्वर्णतरी परय हो हिंडोला,
देख, मन का हर्ष कुन्ती ने टटोला।

देखती है क्षीर–सिन्धु दधि–उदधि है,
दधिसुता, दधिसुत वहाँ, कुछ और यदि है।
वृष्टि केशर की, खिला अम्बर कमल–सा,
हो गया हो व्योम कंचन के महल–सा।

झूलता है पालने पर हेम का सुत,
बन अटल, इस्थिर, विभा का पुत्र अच्युत,
और फिर सब कुछ अलोपित ही अचानक,
हो उठा है पूर्व–सा ही हृदय धकधक।

फिर वही लहरें, तरी पर शिशु वही फिर,
मेघ कुन्ती–दृष्टि–पथ में आ रहे घिरय
सोचती कुछ और प्रहरी सामने था,
जीत कर आया हुआ होय ज्यों, विजेता।

देख कर जाती रही शंका पृथा की,
लीन होती नीलिमा नीली व्यथा कीय
बोलती आगे पृथा कुछ जानने को,
धैर्य लेकिन था कहाँ कुछ सामने को।

कह उठा, " सब कुछ कुशल है, क्षेम कहिए,
देवता का, देवियों का प्रेम कहिएय
कालिमा कैसी भयावह! मृत्यु जैसी,
रात कालिख–कोठरी में बन्द–सी थी।

" गिरि–वनों के रास्ते सब तिमिरपोषित,
काल की ही रात थी वह, पूर्ण घोषितय
इस नदी की उस नदी से धार मिलती,
एक पल में कोस भर थी जा निकलती।

" और मेरा अश्व गति में यान बन कर,
था तिमिर से होड़ लेता खूब तन करय
क्या कहूँ हे देवी, लेकिन वह पुरुष जो,
इस तरह चलता कि फीकी अश्वगति तो।

" स्वप्न था मेरा कि आँखों का भरम था,
जागता था दिवस–सा हीय घोर तम थाय
रात भर तिगुनी रही थी गति मरुत की,
और तिगुनी धार चन्दन की अनोखी।

" स्वर्ण का संदूक सीधे जा रहा था,
धार के संग मरुत लोरी गा रहा थाय
रात भर बहता रहा संदूक थिर–सा,
एक टक था देखता उसको अधिर–सा।

" और जब संदूक तट से जा लगा तो,
शांत थीं सारी दिशाएँ, उदधि सातो,
और संग–संग रात भर वह जो चला था,
भोर होते व्योम से वह जा मिला था।

" वह उधर से जा रहा था, तो इधर मैं
अब भी कितने प्रश्न सारे इस हृदय में।
भोर की पहली किरण उगने लगी थी,
थी उनींदी–सी हवा लेकिन जगी थी।

" कौन था वह रात भर चलता रहा था?
गति मरुत की नापते बहता रहा थाय
रश्मियों को दूर तक आगे बिछाए,
इस तरह कि सब दिखे, वह दिख न पाए.

" मेरा अचरज तो यही सबसे बड़ा था,
एक अनुपम देश के तट पर खड़ा था।
क्या कहूँ हे देवी, कैसा देश है वह,
कुसुम कंचन का खिलाय हो गंध महमह।

" सौध कंचन के बने, मठ और मंदिर,
कुछ न जाना कौन–सा वह देश आखिर!
स्वर्ण के पथ, स्वर्ण की गलियाँ, चैराहे,
स्वर्ग उतरा हो धरा परय कौन थाहे!

" गिर रही थी स्वर्ग की सुषमा जहाँ पर,
मुक्ति को अमरत्व मिलता है वहाँ पर!
देश वहय बैकुंठ ही सचमुच धरा पर,
कोई अद्भुत भक्ति हो शोभित परा पर!

" वेदवाणी–सी बहे गंगा जहाँ पर,
देवी! ऐसा देश धरती पर कहाँ पर!
यह तो मैंने बाद में जाना नरों से,
प्रश्न तो दो–चार, बाकी उत्तरों से।

" अंग उसका नाम है, उस देश का तो,
छू के बहती है कई नदियाँ, न सातो!
ऋषि–तपस्वी, मुनिवरों की भूमि है वह
कुसुम–कंचन का खिला–सा, गंध महमह!

" देवी, क्या आश्चर्य था वे भोर के क्षण,
रश्मियों से हो रहा था स्वर्ण कण–कण!
जा लगी थी पेटी चंपा के किनारे,
शांत अपने आप लहरों के सहारे।

" और फिर देखा किनारे संत कोई,
श्रेष्ठकुल उत्पन्न हो, कुलवंत कोईय
गोद में लेकर खड़ा वसुषेन को था,
और शिशु किलकारियों में था, जो रोता।

" उस समय देखा था शिशु को यूँ हुलसते,
सिद्धि–निधि की गोद में सुख को किलकते।
मोक्ष से बढ़ कर सुखद वह एक क्षण था,
योग क्या संयोग था? ऋण से उऋण था।

" जो भी हो अद्भुत कथा वह योग की है,
इस धरा पर जन्म की और भोग की है,
और फिर कुछ दूर पर कुछ–कुछ दिखा था,
स्वर्णपट पर चाँदी से जैसे लिखा था।

" देखता उसकी तरफ, तो वह नहीं था,
दूर क्षिति के पार भी न कुछ कहीं थाय
सोच कर, मेरा ही भ्रम हो, मौन धारा,
कह गया मैं अनकहा सब सत्य सारा।

" पर बताया ही नहीं आगे हुआ क्या,
जैसे ही उस व्यक्ति ने शिशु को लिया थाय
हट गया मैं, दूर होता ही गया फिर,
झर पड़ी थी रश्मियाँ उस वक्त झिरझिर।

" भोर की बेला भले वह, दिन लगा था,
नींद से जैसे अचानक मैं जगा था!
उस पुरुष के वाम में ही संगिनी थी,
अप्सरा ही सामनेय अर्द्धांगिनी थी?

" ले लिया नवजात को था पुरुष–कर से,
गोद में रख खिल पड़ी थी पाँव–सर सेय
देख कर वह दृश्य मैं तो खिल गया था,
जो मिला न आज तक वह मिल गया था।

" लौट आया हूँ यहाँ मैं वायु गति से,
बच बचा कर आँख नारी–नर से, यति से।
देवी, कुछ भी अब नहीं चिन्ता का कारण,
हो गया भवितव्य के दुख का निवारण। "

चुप हुआ प्रहरी, न आगे कुछ कहा फिर,
पाँव इस्थिर, हाथ इस्थिर, बोल इस्थिर।
पूर्णिमा हीय ज्यों शरत के घन–तिमिर में,
थी पृथा वैसी ही अब भी दिन–मिहिर में।

देख कर यह रूप धात्री हट गई थी,
पीर ऐसी थी कि छाती फट गई थीय
सर झुका प्रहरी वहाँ से लौट आया,
सामने रवि की सिहरती स्वर्ण छाया।

झुक गया सर कुंती का मधुरा श्रद्धा से,
हो गई करबद्ध कोमल कामना सेय
पत्तियों से फूटता संगीत जैसे
गूंजते हैं स्वर किसी के मंद्र लय से।

" दुख नहीं करना पृथा अपने किए पर,
कुछ नहीं इस्थिर यहाँ, सब भाव गत्वरय
कर्ण दोनों के प्रणय का पुण्य फल है,
पंक के ऊपर खिला उज्ज्वल कमल है।

" जो कवच–कुंडल दिया, पहचान हैं ये,
पाश–बंधनबद्ध मन के गान हैं येय
तेज सम्मुख तुमसे है आकार पाकर,
है प्रकृति सचमुच पुरुष से आज ऊपर।

" जो तुम्हारी सृष्टि है, स्रष्टा बनेगा,
तामरस होगा, ये इन्दीवर खिलेगा।
यह पिता–माता के व्रत का ही व्रती हो,
देवता के धर्मरथ का ही रथी हो। "

झिलमिलाए फिर पृथा के रूप सुन्दर,
शांत पुलकित हो रही है ओढ़ अम्बर।
इन्द्रधनु की रश्मियांय रवि का दिवस है,
वृक्ष पर सूखी लता भीगी–सरस है।