जब-जब चाँद निकलता है / हरिवंश प्रभात
जब-जब चाँद निकलता है, बदली उस पर छा जाती है,
मैं जब भी बीन बजाता हूँ, वो बैठ मजे पगुराती है।
माँ-बाप छूटे, रिश्ते टूटे, अपनों से दूर बसेरा है
जितना एकान्त हूँ मैं उतना घर में मैके ले आती है।
सागर इतना गहरा होगा, पर्वत इतना बहरा होगा
यद्यपि किनारा निकट मेरा, नैया मझधार बुलाती है।
सोने के जितने भाव चढ़े, उतने अंगों के ताव चढ़े
बेशकीमती नख, शिख, यौवन पर अंगड़ाई लिए मदमाती है।
जाहिर है जश्न हुआ होगा, भावी का प्रश्न हुआ होगा
ये कमल की डाली फूलों से, किस ओर ज़रा झुक जाती है।
वैसे तो महक रहा मौसम, धरती की धानी चूनर है
पर मेरे चमन के परदे से, कलियाँ भी मुँह चिढ़ाती है।
मेरे कहने का अर्थ अलग, सामर्थ तेरा पछतायेगा
कुछ व्यर्थ नहीं है सावन यह, जीवन धारा समझाती है।