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जब-जब झाँका मैंने / अनिल जनविजय

जब-जब झाँका, मैंने भीतर

तेरे अंतस में

मैंने पाया

डूबी है तू प्रेमरस में


रश्मि रंगों से रंगा है मन

तन में छाई है घोर अगन

विकल कामना

सुगंध रति की भीनी

झिलमिल झलके वासना छवि झीनी


कर न पाए

मति को तू किसी तरह भी बस में

डूबी है तू प्रेमरस में


हृदय को सींचे प्रिय आलोक की छाया

मन को टीसे सजन मोह की माया

नेह वेदना

विगलित तन दिगम्बरा

हरसिंगार-सी झरे स्मॄति अम्बरा


तू पाती है

सुख प्रसव का इस व्यथा अवश में

डूबी है तू प्रेमरस में



1996 में रचित