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जब ज़ुल्फ़ शरीर हो गई है / 'उनवान' चिश्ती
Kavita Kosh से
जब ज़ुल्फ़ शरीर हो गई है
ख़ुद अपनी असीर हो गई है
जन्नत के मुक़ाबले में दुनिया
आप अपनी नज़ीर हो गई है
जो बात तिरी ज़बाँ से निकली
पत्थर की लकीर हो गई है
होंटों पे तिरे हँसी मचल कर
जल्वों की लकीर हो गई है
जो आह मिरी ज़बाँ से निकली
अर्जुन का वो तीर हो गई है
शायद कोई बे-नज़ीर बन जाए
वो बदर-ए-मुनीर हो गई है
ऐ बाद-ए-सबा तू छू के गेसू
ख़ुषबू की सफ़ीर हो गई है
आवाज़-ए-शिकस्त-ए-दिल ही ‘उनवाँ’
आवाज़-ए-ज़मीर हो गई है