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जमेगी कैसे बिसाते-याराँ / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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जमेगी कैसे बिसाते-याराँ के शीशा-ओ-आम बुझ गये हैं
सजेगी कैसे शबे-निगाराँ के दिल सरे-शाम बुझ गये हैं
वो तीरगी है रहे-बुतान में चिरागे-रुख़ है न शम्मे-वादा
किरण कोई आरजू की लाओ की सब दरो-बाम बुझ गये हैं
बहुत संभाला वफ़ा का पैमां मगर वो बरसी है अबके बरखा
हर एक इकरार मिट गये हैं, तमाम पैगाम बुझ गये हैं
करीब आ ऐ महे-शबे-ग़म नज़र पे खुलता नहीं कुछ इस दम
की दिल पे किस-किसका नक़्श बाकी है कौन से नाम बुझ गये हैं
बहार अब आके क्या करेगी की जिनसे था जश्ने-रंगों-नगमा
वो गुल सरे-शाख़ जल गये हैं, वो दिल तहे-दाम बुझ गये हैं