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जहाज पर / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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घंटों से बैठा हुआ हूँ
जहाज पर
पानी की दूर तक फैली हुई बस्ती में
पानी ही पानी है
गंगा की धार को
फाड़ता जा रहा है
जहाज
एक रेखा बनती जा रही है
बीचोबीच
जैसे विस्तृत खेत के मध्य में
किसी संकल्पी किसान ने
हल की एक लम्बी रेखा
खींच दी हो
जहाज
जाने कितने दिनों से चल रहा है
विशाल घड़ियाल सा तैरता
मेरा मन
डरा हुआ सा हो गया है
उकताने भी लगा है मन
आखिर इस सफर का
कोई अंत है भी या नहीं
ये मेरे यात्रा मित्र
स्लेट पर खिंची लकीर से स्थिर हैं

चुप हैं
हाय ! आदमी आदमी से कितना कट गया है
वे सिर्फ मुझे घूर रहे हैं
कि अचानक एक शोर
और शोर बढ़ता ही जाता है
हिन्दुस्तान की गरीबी और जनसंख्या की तरह
मेरे कुछ भी संभलने से पहले
जहाज की सतह पर
तीन लाशें बिछ जाती हैं

आदमी अब भी चुप हैं
कुछ नहीं बोलते
कुछ नहीं हिलते
हाय ! आदमी कितना जड़ हो गया है
क्रोध में संझाती किरणें लाल हो उठी हैं
और गंगा का पानी भी
लहू से लाल हो रहा है
और सब पहले से हैं
कहीं कुछ नहीं बदला
मेरी आंखों के कोवे
आँसू से फूल गये हैं
कि अब बहे, तब बहे
गंगा में जहाज
अब भी चला जा रहा है
हवा में तैरता
प्रेत सा